और खिल उठते हैं मोहब्बत के फूल…

by Prateeksha Pandey

I

प्रेम है
कैफ़े में बैठे हुए
चाय और ठहाकों के बीच
यूँ ही बाहर झाँकना
और तब्दील होते देखना
काँच की दीवारों को
एक बूढ़े क़िले में
जिसके एकाकी, बदरंग दरीचों के किनारे
फूट रही हों कोपलें
नर्म, नाज़ुक याद कीं
और दीवारों से
बदन जोड़कर चढ़ रही हो एक बेल
दर्द की.
प्रेम
चाय की दो चुस्कियों के बीच
एक बूढ़े क़िले के
सबसे अंधकारमयी कमरे में जाकर
तुम्हें चूम के आने तक का
सफ़र है.

~

II

चालीस खोपड़ियों में घूम रहे
चालीस हज़ार सवाल
किताब पर लिखे अक्षरों से घूमकर
लौट आते हैं मैडम के कानों में पड़े
मछलीनुमा झुमके पर.
घंटी लगते ही
वर्दियों में ऊंघते सिपाही
बदल लेतें हैं अपनी उबासियाँ
उसकी मुस्कानों से
और पसीने की गंध में खिल उठते हैं
मोहब्बत के फूल.

~

image source: Der Kuss (The Kiss), 1909, by Gustav Klimt